दूसरों का भला कीजिए, आपका कल्याण स्वयं हो जाएगा
राजा रंतिदेव को अकाल के कारण कई दिन भूखे-प्यासे रहना पड़ा। मुश्किल से एक दिन उन्हें भोजन और पानी प्राप्त हुआ, इतने में एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आ गया। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से ब्राह्मण को भोजन कराया।उसके बाद एक शूद्र अतिथि आया और बोलाः ‘‘मैं कई दिनों से भूखा हूँ, अकालग्रस्त हूँ।’’ बचे भोजन का आधा हिस्सा उसको दे दिया। फिर रंतिदेव भगवान को भोग लगाएं, इतने में कुत्ते को लेकर एक और आदमी आया।
बचा हुआ भोजन उसको दे दिया। इतने में एक चाण्डाल आया, बोला: ‘‘प्राण अटक रहे हैं, भगवान के नाम पर पानी पिला दो।’’ अब राजा रंतिदेव के पास जो थोड़ा पानी बचा था, वह उन्होंने उस चाण्डाल और कुत्ते को दे दिया। इतने कष्ट के बाद रंतिदेव को मुश्किल से रूखा-सूखा भोजन और थोड़ा पानी मिला था, वह सब उन्होंने दूसरों को दे दिया।
बाहर से तो शरीर को कष्ट हुआ लेकिन दूसरों का कष्ट मिटाने का जो आनंद आया, उससे रंतिदेव बहुत प्रसन्न हुए तो वह प्रसन्नस्वरूप, सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा जो अंतरात्मा होकर बैठा है साकार होकर नारायण के रूप में प्रकट हो गया, बोला: ‘‘रंतिदेव! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, क्या चाहिए ?’’
रंतिदेव बोले :
‘‘न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा मष्टर्ध्दियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा मन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥
‘मैं भगवान से आठों सिद्धियों से युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्ष की भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख मैं ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणी को दुःख न हो ।’
(श्रीमद्भागवत : 9.21.12)
प्रभु ! मुझे दुनिया के दुःख मिटाने में बहुत शांति मिलती है, बहुत आनंद मिलता है। बस, आप ऐसा करो कि लोग पुण्य का फल सुख तो स्वयं भोगें लेकिन उनके भाग्य का जो दुःख है, वह मैं उनके हृदय में भोगूँ ।’’
भगवान ने कहा: ‘‘रंतिदेव! उनके हृदय में तो मैं रहता हूँ, तुम कैसे प्रवेश करोगे ?’’ बोले: ‘‘महाराज! आप रहते तो हो लेकिन करते कुछ नहीं हो। आप तो टकुर-टकुर देखते रहते हो, सत्ता देते हो, चेतना देते हो और जो जैसा करे ऐसा फल पाये... मैं रहूँगा तो अच्छा करे तो उसका फल वह पाये और मंदा करे तो उसका फल मैं पा लूं।
दूसरे का दुःख हरने में बड़ा सुख मिलता है महाराज! मुझे उनके हृदय में बैठा दो।’’ जयदयाल गोयंदकाजी कहते थे: ‘‘भगवान मुझे बोलेंगे: तुझे क्या चाहिए? तो मैं बोलूँगा: महाराज! सबका उद्धार कर दो।’’
तो दूसरे संत ने कहा कि ‘‘अगर भगवान सबका उद्धार कर देंगे तो फिर भगवान निकम्मे रह जायेंगे, फिर क्या करेंगे?
उन्होंने कहा कि ‘‘भगवान निकम्मे हो जायें इसलिए मैं नहीं माँगता हूँ और सबका उद्धार हो जाय यह संभव भी नहीं, यह भी मैं जानता हूँ। लेकिन सबका उद्धार होने की भावना से मेरे हृदय का तो उद्धार हो जाता है न!’’
जैसे किसीका बुरा सोचने से उसका बुरा नहीं होता लेकिन अपना हृदय बुरा हो जाता है, ऐसे ही दूसरों की भलाई सोचने से, भला करने से अपना हृदय भला हो जाता है।

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