जानिए, सारी परेशानियों की असली जड़ क्या होती है?
मोह माने क्या? उलटा ज्ञान - जो हम नहीं हैं उसको हम मैं मानते हैं और जो हम हैं उसका पता नहीं। रावण क्या है? मोह का स्वरूप है और विष्णु क्या हैं? जो सबमें बस रहे हैं और सबका हित चाहनेवाले, अकारण दया, करुणा-वरुणा बरसानेवाले हैं, वे हैं भगवान नारायण, भगवान विष्णु; जो कि सृष्टिकर्ता, भर्ता, भोक्ता हैं।अकारण दया बरसानेवाले, दीनदयालु होते हुए भी उनको सृष्टि करनी है। अब सब पर दया करते रहेंगे तो सृष्टि कैसे चलेगी? इसीलिए एक संविधान बनाया कि जो उनकी दया की आकांक्षा करते हैं, उनकी प्रार्थना-पूजा करते हैं उनको तो वे अंतर्प्रेरणा दें अथवा बाहर से अवतरित होकर उनकी मदद करें और बाकी जो अपने मोह, अहंकार, काम-क्रोध से भिड़ते हैं, वे भिड़ते-भिड़ते थक जाते हैं। फिर दूसरी-तीसरी योनियों में आते-आते देर-सवेर उनको समझ आती है कि अंतरात्मा में, आत्मा-परमात्मा में गोता मारे बिना सुख नहीं मिलता।
लोग बोलते हैं कि वस्तुओं के आश्रय बिना सुख नहीं मिलता परंतु सच्चाई तो यह है कि परमात्मा के आश्रय बिना सुख नहीं मिलता। रात को सब कुछ छोड़कर एक परमात्म-आश्रय में जीव डूब जाता है तो नींद का सुख मिलता है। परमात्मा और आपके बीच अज्ञान होता है किंतु सत्संग, दीक्षा-शिक्षा और जप के द्वारा अज्ञान ज्यों-ज्यों क्षीण होता जायेगा, त्यों-त्यों परमात्म-प्रेरणा जीवन में प्रकट होती जायेगी, परमात्म-प्राप्ति निकट हो जायेगी।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यंति जन्तवः। (गीता : 5.15)
अज्ञान से ज्ञान आवृत्त हो गया है। देवताओं ने भगवान नारायण से प्रार्थना की : ‘‘प्रभु! रावण और राक्षस बड़ा दुःख दे रहे हैं। उन्होंने बड़ा तहलका मचा दिया है।’’
भगवान नारायण ने कहा : ‘‘कोई बात नहीं, तुम लोग निश्चिंत हो जाओ। रावण आदि का वध मैं करूँगा।’’ फिर वही देवाधिदेव परमेश्वर सत्ता दशरथनंदन होकर रामजी के रूप में आयी।
‘वाल्मीकि रामायण’ में श्रीरामजी को भगवान के रूप में नहीं बल्कि नर रूप में दर्शाया गया है, क्योंकि श्रीरामजी नर तन में थे और नर-मर्यादा में जी रहे थे। सीताजी को रावण ले गया तो ‘हाय सीते! सीते-सीते!!...’ कहकर रुदन करने लगे। परात्पर भगवान नारायण एक स्त्री के लिए क्यों रोयेंगे?
रामचंद्रजी नरलीला कर रहे थे। नारायण के अवतार हैं, लेकिन नर रूप में एक-दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य, स्नेह व सहानुभूति कैसी होनी चाहिए - इसकी मंगलमय प्रेरणा देनेवाला अवतार है। भगवान राम का श्रीविग्रह तो अभी नहीं है परंतु उनके आचरण, गुणगान और उनकी तन्मात्राएँ अभी भी विश्व में व्याप रही हैं। लोगों में सज्जनता, स्नेह, धर्मपालन तथा दुःखियों के प्रति आर्तभाव, दयालुता और सुखियों के प्रति प्रसन्नता - इस प्रकार के श्रीरामजी की तन्मात्राओं के सद्गुण अभी भी फैले हुए हैं।
भगवान राम की स्मृति, भगवान राम के नाम का जप बड़ा पुण्यदायी है और भगवान राम की कार्यकुशलता, अहा! ... रामजी करने योग्य कार्यों को तत्परता से करते और जो नहीं करना है उसको मन से हटा देते, व्यर्थ का चिंतन नहीं करते थे, सारगर्भित बोलते थे। दूसरे को मान देते व आप अमानी हो के उसका मंगल हो ऐसा बोलते थे। आप भी अपने नाते-रिश्तेदार का, किसीका भी अमंगल न चाहो तो आपका हृदय भी मंगलभवन, अमंगलहारी होने लगेगा। यह आप कर सकते हो। आप भगवान राम की नाईं धनुष धारण नहीं कर सकते लेकिन रामजी के गुण तो अपने हृदय में धारण कर सकते हो।
रामजी हीन शरणागति नहीं लेते थे। कैकेयी ने हीन शरणागति ली तो कितनी बदनाम और दुःख पैदा करनेवाली हुई। भगवान राम छोटे आदमी की बातों में, खुशामदखोरों की बातों में नहीं आते थे। उन लोगों को यथायोग्य प्रसन्न कर देते पर उनकी बातों में नहीं आते थे। अपने विवेक से निर्णय करते, रोम-रोम में रमे हुए राम में समाधिस्थ होते, शांतात्मा होते और कभी-कभी गुरु वसिष्ठजी का मार्गदर्शन लेते थे।
दशरथनंदन श्रीराम बड़ों का आदर करते, अपने जैसों से स्नेह से व्यवहार करते और छोटों से दयापूर्ण व्यवहार करते। कोई सौ-सौ गलतियाँ कर लेता किंतु रामजी उसके लिए मन में गाँठ नहीं बाँधते और कोई उनकी भलाई या सहयोग करता तो उसका उपकार नहीं भूलते थे - ऐसे थे मर्यादा पुरुषोत्तम रामजी। रात्रि को सोते समय तथा प्रातःकाल उठकर बिस्तर पर ही आत्मशांति का सुमिरन करते थे, ‘सुख-दुःख देनेवाली परिस्थितियाँ, व्यवहार बदलनेवाला है पर मेरा आत्मा एकरस, अबदल है। मैं उसीके ध्यान में पुष्ट हो रहा हूँ।’ आप भी यह कर सकते हैं।
आप रात्रि को शयनखंड में जाने पर और सुबह उठते समय ऐसा चिंतन करेंगे तो आपके जीवन में रोज रामनवमी होने लगेगी अर्थात् आपके हृदय में रामजी का प्राकट्य होने लगेगा।

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